Tuesday 24 May 2011

न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही !

बात चीत

ऐसे बेखटके शामिल हो जाने का मन था
उस बात चीत में जहाँ एक घोड़े वाला
और कुछ संगतराश थे ढाबे के चबूतरों पर
ऐसे कि किसी को अहसास ही न हो


वहाँ बात हो रही थी
कैसे कोई कौम किसी दूसरे कौम से अच्छा हो सकता है
और कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क से

कि कैसे जो अंगरेज थे
उन से अच्छे थे मुसलमान
और कैसे दोनो ही बेहतर थे हमसे

कि क्या अस्सल एका था बाहर के कौमों में
मतलब ये जो मुसल्ले बगैरे होते हैं
कि हम तो देखने को ही एक जैसे थे ऊपर से
और अन्दर खाते फटे हुए

सही गलत तो पता नहीं हो भाई,
हम अनपढ़ आदमी, क्या पता ?
पर देखाई देता है साफ साफ
कि वो ताक़तवर है अभी भी

अभी भी जैसे राज चलता है हम पे
उनका ही— एह !
कौन गिनता है हमें
और कहाँ कितना गिनता है
डंगर की तरह जुते हुए हैं उन्ही की चाकरी में – एह !

तो केलङ से बरलचा के रास्ते में
जीह के ओर्ले तर्फ एक ज़रोङ मिलता है आप को – एह !
पेले तो क्या घर क्या पेड़ कुच्छ नहीं था
खाली ही तो था – एह !
अब रुळिङ्बोर केते कोई दो चार घर बना लिए हैं
नाले के सिरे पे जो भी लाल पत्थर है
लाल भी क्या होणा अन्दर तो सुफेदै है
सब बाढ़ ने लाया है
एक दम बेकार
फाड़ मारो , बिखर जाएगा
कुबद का खान ऊपर ढाँक पर है
पहाड़ से सटा हुआ एक दम काला पत्थर
लक्कड़ जैसा मुलायम और साफ
काम करने को सौखा – एह !


बल्ती लोग थे तो मुसलमान
पर काम बड़ा पक्का किया
सब पानी का कुहुल
सारी पत्थर की घड़ाई
लौह्ल का सारा घर मे कुबद इन लोग बनाया
अस्सल जिम्दारी लौह्ल मे इन के बाद आया
बड़ा बड़ा से:रि इनो ही कोता --- एह !
और बेशक धरम तब्दील नही किया
जिस आलू की बात आज वो फकर से करते हैं
पता है, मिशन वाले ने उगाया
पैले क्या था ?

और हमारा आदमी असान फरमोश
गदर हुआ तो नालो के अन्दर भेड़ बकरी की तरह काट दिया
औरत का ज़ेबर छीना
बच्चा मार दिया
ए भगवान
कितना तो भगा दिया बोला जोत लंघा के
देबी सींग ने
हमारा ताऊ ने
मुंशी साजा राम ने
सब रेम् दिल भलमाणस थे --- एह !

और बंगाली पंजाबी साब भादर लोगों ने क्या किया
अंग्रेज से मिल कर
सब कीम्ती कीम्ती आईटम अम्रीका और लन्दन पुचाया
अजाबघ्रर बनाने के लिए – एह !

ये सब तेज़ खोपड़ी
ताक़त पास मे हो तो दमाग और भी तेज़ घूमता
बहुत तेज़ी से और एकदम उलटा
फिर हो गया पूरा कौम बदनाम एकाध आदमी करके
एक मछली ,
सारा तलाप खन – खराप , एह !

और पत्थरों के बारे में जो बातें थीं
वो भी लगभग वैसी ही थीं
कि उन मे से कुछ दर्ज वाले होते हैं
और कुछ बिना दर्ज वाले होते हैं

कि परतें कैसे बैठी रहतीं हैं
एक पर एक चिपकी हुईं
कि कहाँ कैसी कितनी चोट पड़ने पर
दर्ज दिखने लग जाते हैं साफ – साफ
जैसा मर्ज़ी पत्थर ले आईए आप
और जहाँ तक घड़ाई की बात है
चाहे एक अलग् थलग दीवार चिननी हो
या नया घर ही बनाना हो
या कुछ भी
दर्ज वाले पत्थर तो बिल्कुल कामयाब नहीं हैं

आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा
वह एक बिना दर्ज वाला पत्थर ही हो सकता है
जो गढ़ा जा सकता है मन मुआफिक़
कितने चाहे क्यूब काट लो उस के
और लम्बे में , मोटे में
कैसे भी डंडे निकाल लो
बस पहला फाड़ ठीक पड़ना चाहिए
और
बशर्ते कि मिस्त्री काँगड़े का हो – एह !

मिस्तरी तो कनौरिये भी ठीक हैं
कामरू का क़िला देखा है
बीर भद्दर वाला ?

अजी वो कनौरियों ने थोड़े बणाया
वो तो सराहणी रामपुरिए होणे

रेण देओ माहराज, काय के रामपुरिए
यहीं बल्हड़ थे सारे के सारे
सब साँगला में बस गए भले बकत में
रोज़गार तो था नहीं कोई
जाँह राजा ठाकर ले गया , चले गए – एह !

बुशैर का लाका है तो बसणे लायक , वाक़ई......

धूड़ बसणे लायक !
पूह तक तो बुरा ही हाल है
ढाँक ही ढाँक
नीचे सतलज – एह !

आगे आया चाँग- नको का एरिया
याँह नही बोलता कनौरी में , कोई नहीं
सारे के सारे भोट आ कर बस गए ऊपर से – एह !
बाँह की धरती भी उपजाऊ और घास भी मीठी

ञीरू से ले के ञुर्चा तक सब पैदावार
और पहाड़ के ऊपर रतनजोत – एह !

नीचे तो कुछ पैदा नहीं होता
और घास में टट्टी का मुश्क
हे भगवान .... घोड़े को भी पूरा नहीं होता
पेड़ पर फकत चुल्ली और न्यूज़ा – एह !

कनौर वाला नही खाता अनाज , कोई नहीं
तब तो भाषा भी अजीब है
न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही

पर भाई जी
सेब ने उनो को चमका दिया है – एह !

हिमाचल मे जिस एरिया ने सेब खाया
देख लो
रंग ढंग तो चलो मान लिया
ज़बान ही अलग हो गई है !


सेब हमारे यहाँ था तो पहले से ही
पर जो बेचने वाला फल था
वह एक इसाई ले के आया था
ऐसा नही कि कुल्लू को सेब ने ही उठाया था
क्या क्या धन्दे थे कैसे कैसे
किस को मालूम नहीं ?

वो तो कोई गोकल राम था
जो पंडत नेहरू के ठारा बार पुकारने पे भी
तबेले में छिपा रहा था
पनारसा के निचली तरफ
और ठारा दिन उस की मशीन रुकी रही
पानी से चलती थी भले बकत में

लाहौर की बी ए थी अगले की
पर शरम के मारे बाहर नहीं आया
तो क़िस्मत भी बचारे की तबेले में बन्द हो गई
बेद राम था तेज़ आदमी
पैर पकड़ के ज़मीने कराई अपने नाम

सोसाटी बणा के – एह !
आज मालिक बना हुआ है
पलाट काट के बेच रहा है
कलोनी खड़ी कर दी अगले ने

कौण पूछ सकता है ? – एह !

मैं केता हूँ कि लग्गे रेणा पड़्ता है

क्या पता कब दरवाज़ा खुल जाए – एह !

आखीर मे जब वहाँ से चलने को हुआ चुपचाप
तो तय था कि बातों की जो परतें थीं
वे तो हू ब हू वैसी ही थीं
जैसी समुदायों , मुल्कों , पत्थरों, घोड़ों और तमाम
ऐसी चीज़ों के होने व बने रहने की शर्तें थीं
एक के भीतर से खुलती हुई दूसरी थी
कोई तीसरी भी
कहीं कहीं नज़र आ जाती
बारीकियों में छिपी हुईं
जहाँ कोई जाना नही चाहता था
सच बात तो यह है कि
बात कहने के लिए आप को आवाज़ नहीं होना होता
जब कि परतों को सुनने के लिए आप को पूरा एक कान
और देख पाने के लिए आँख हो जाना होता था

मुझे लगा कि यही समय था
बात चीत के बारे बात करने का

कि एक ज़हनी दुनिया मे खर्च हो जाने से बचने के लिए
कितनी बड़ी नैमत है बातचीत ?

बेवजह भारी हुए बिना और बेमतलब अकड़े बिना
कड़क चा सुड़कते हुए,
अभी से तुम कहते रह सकते हो अपनी बातें
क्यों कि एक दिन तुम चुप हो जाने वाले हो


इत्ता बड़ा सत्त
वैसे भी इस धम्मड़ धूस दुनिया में एक गप्प
ही तो है ,
और अंतिम वाक्य जिसे छोड़ कर चले जाने का
क़तई मन नहीं था --

कि न भी हो अगर गप्प
तो उपयोग इस सत्त का क्या है
जेह बताओ तुम – एह ?

कुल्लू – 25.3.2011

Saturday 22 January 2011

मां, हर्पीज़ और आदिम चांदनी

यह कोई आदिम युग ही होगा ।
वे लोग आधी-आधी रात तक जागे रहते हैं
साँसे रोक चाँद उगने की प्रतीक्षा में

जब कि सन्तरई-नीली चाँदनी ने पहले ही
पहाड़ के पीछे वाली घाटी में बिछना शुरू कर दिया है ।

चाँद के घटने-बढ़ने का हिसाब
तमाम कलाओं की बारीकियां
भोज पत्रों में दर्ज करते हैं वे सनकी लोग
पल, घड़ी, पहर और तिथियां
उन्हों ने इन ब्यौरों के मोटे भूरे ग्रन्थ बना रक्खें हैं ।

कुछ लोग एक झाड़ की ओट में
भारी धारदार खाण्डों से दुर्बल मृगशावकों के गले रेत रहे हैं ।
और कुछ अन्य
गुपचुप पड़ोसी कबीले पर हमले की योजनाएं बना रहे हैं ।
उन्हों ने बड़े-बड़े कद्दावर ऊंट और घोडे़ और कुत्ते पाल रखे हैं।
अपने पालतुओं के जैसे ही वहशी दरिन्दे हैं वे -
तगड़े, खूंखार, युद्धातुर ।
अपने निश्चयों में प्रतिबद्ध ।
अपने प्रारब्ध के प्रति निश्चिन्त ।

जाने कब से उनके आस-पास विचर रहा हूँ मैं
बलवान शिकारियों के उच्छिष्ठ पर पलने वाला लकड़बग्घा
हहराते अलाव पर भूने जा रहे लाल गोश्त की आदिम गंध पर आसक्त
मेरे अपने चाँद की प्रतीक्षा में ।

मुझे भी नीन्द नहीं आती आधी-आधी रात तक ।
मैं भी उतना ही उत्कट
उतना ही आश्वस्त
वैसे ही आँखें बिछाए
उतना ही क्रूर
उतना ही धूर्त
अपने निजी चेतनाकाश के फर्जी़ नक्षत्रों का कालचक्र तय करने
अपना ही एक छद्म पंचांग निर्धारित करने की फिराक में
अपना मनपसन्द अखबार ओढ़
(जिस में मेरे प्रिय कवि के मौत की खबर छपी है)
अपनी ही गुनगुनी चांन्दनी में सराबोर होने की कल्पना में
उतना ही रोमांचित ।
महकती फूल सी गुलाबी रक्कासा
पेश करने ही वाली है मदिरा की बूंदे
कि कैसी भीनी-भीनी खुश्बू आने लगी है
अचानक अखबार भीगने की !

यह बारिश ही होगी ।
चाँदनी में भीगे अक्षरों के पार
मैं बादलों की नीयत पढ़ने का प्रयास करता हूं ।
मेरे प्रिय कवि के गाढे़ अक्षर रह-रह कर उभरते हैं
बारिश में घुलमिल कर लुप्त हो जाते हैं
मैं पलकें झपकाता रह जाता हूं निरक्षरों सा
युगों से मैंने किसी और की कविता नहीं पढ़ी
किसी और का दर्द नहीं समझा
और भीतर का टीस गहराता ही गया है ।

मेरी बीमार बूढ़ी मां ने दबे पांव कमरे में प्रवेश किया है ।
मैं अखबारों के नीचे उसके टखनों का घाव देख सकता हूं ।
मेरी जांघों में असहनीय जलन हो आई है
जहां मां के जैसे फफोले उग आए हैं
चांन्दनी रात का चलता जादू रूक गया है
बन्जारों का डेरा तिरोहित हो गया है
मृग शावकों के ताज़ा लहू की गंध कायम है
गीले अखबार से भुने गोश्त की महक अभी उठ रही है
और मांं की तप्त आकांक्षाओं से छनते हुए आ रहे हैं
सिहरे-सहमे से शब्द -
बेटा जिस्म ठण्डा रहा है
यह ऊनी शाल ओढ़ा देना
जुराबों का यह जोड़ा भी .......
और तुम यह सोचते क्या रहते हो यहां लेटे-लेटे
कुछ करते क्यों नहीं बाहर जाकर ..

मुझे लगता है
मुझे अपनी चांन्दनी से बाहर भी जीना है ।

1998

Monday 18 October 2010

जो अन्धों की स्मृति में नहीं है

हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.

भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए

ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं

प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर .....
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !

बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010

Saturday 18 September 2010

हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका 'असिक्नी' आपकी नज़र

तकरीबन तीन साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद असिक्नी का दूसरा अंक प्रकाशित हो गया है. *असिक्नी * साहित्य एवम विचार की पत्रिका* है जो कि सुदूर हिमालय के सीमांत अहिन्दी प्रदेशों में हिन्दी भाषा तथा साहित्य को लोकप्रिय बनाने तथा इस क्षेत्र की आवाज़ को, यहाँ के सपनों और *संकटों* को शेष दुनिया तक पहुँचाने के उद्देश्य से रिंचेन ज़ङ्पो साहित्यिक -साँस्कृतिक सभा केलंग अनियतकलीन प्रकाशित करवाती है. सभा के संस्थापक अध्यक्ष श्री त्सेरिंग दोर्जे हैं तथा पत्रिका का सम्पादन कुल्लू के युवा आलोचक निरंजन देव शर्मा कर रहें हैं।



170 पृष्ठ की पत्रिका का गेट अप सुन्दर है, छपाई भी अच्छी है। मुख पृष्ठ पर तिब्बती थंका शैली में बनी बौद्ध देवी तारा की पेंटिंग है. भीतर के मुख्य आकर्षण हैं :
स्पिति के प्रथम आधुनिक हिन्दी कवि मोहन सिंह की कविता हिमाचल में समकालीन साहित्यिक परिदृष्य पर कृष्ण चन्द्र महादेविया की रपट। परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा स्नोवा बार्नो की रचनाधर्मिता को पकड़ने सार्थक प्रयास। पश्चिमी भारत की सहरिया जनजाति पर रमेश चन्द्र मीणा संस्मरण। विजेन्द्र की किताब आधी रात के रंग पर बलदेव कृष्ण घरसंगी और अजेय की महत्वपूर्ण टिप्पणियां। साथ में विजेन्द्र जी के अद्भुत सॉनेट लाहुल के पटन क्षेत्र में बौद्ध समुदाय की विवाह परम्पराओं पर सतीश लोप्पा का विवरणात्मक लेख। लाहुली समाज के विगत तीन शताब्दियों के संघर्ष का दिल्चस्प लेखा जोखा त्सेरिंग दोर्जे की कलम से। इतिहासकार तोब्दन द्वारा परिवर्तन शील पुरातन गणतंत्रात्मक जनपद मलाणा पर क्रिटिकल रपट।नूर ज़हीर, ईशिता आर 'गिरीश ',ज्ञानप्रकाश विवेक , मुरारी शर्मा की  कहानियां. मधुकर भारती,उरसेम लता, त्रिगर्ती, अनूप सेठी , आत्माराम रंजन, सुरेश सेन, मोहन साहिल, सुरेश सेन 'निशांत 'और सरोज परमार सहित गनी, नरेन्द्र, कल्पना ,बी. जोशी इत्यादि की कविताएं. प्रकाश बादल की ग़ज़लें। हाशिए की संस्कृतियों और केन्द्र की सत्ता के द्वन्द्व पर विचरोत्तेजक आलेख, पत्र, व सम्पादकीय। पत्रिका मँगवाने का पता : भारत भारती स्कूल, ढालपुर, कुल्लू, 175101 हि।प्र। दूरभाष : 9816136900

Tuesday 17 August 2010

यह जो गाँव है....... और उस में आदमी

एक आदमी होता था


पहले एक गोरेय्या होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी इतना ऊँचा उड़ा
कि गोरेय्या खो गई!


पहले एक पहाड़ होता था
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे तन कर खड़ा
कि पहाड़ ढह गया!


पहले एक नदी होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे वेग से बहा
कि नदी सो गई!


पहले एक पेड़ होता था
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे ज़ोर से झूमा
कि पेड़ सूख गया!


पहले एक पृथ्वी होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी इतने ज़ोर से घूमा
कि पृथ्वी रो पड़ी!


.... पहले एक आदमी होता था.


मई 4, 2010. कुल्लू




एक अच्छा गाँव


एक अच्छे आदमी की तरह
एक अच्छा गाँव भी
एक बहुचर्चित गाँव नहीं होता.


अपनी गति से आगे सरकता
अपनी पाठशाला में ककहरा सीखता
अपनी ज़िन्दगी के पहाड़े गुनगुनाता
अपनी खड़िया से
अपनी सलेट पट्टी पे
अपने भविष्य की रेखाएँ उकेरता
वह एक गुमनाम क़िस्म का गाँव होता है


अपने कुँए से पानी पीता
अपनी कुदाली से
अपनी मिट्टी गोड़ता
अपनी फसल खाता
अपने जंगल के बियाबानों में पसरा
वह एक गुमसुम क़िस्म का गाँव होता है.


अपनी चटाईयों और टोकरियों पर
अपने सपनों की अल्पनाएं बुनता
अपने आँगन की दुपहरी में
अपनी खटिया पर लेटा
अपनी यादों का हुक्का गुड़गुड़ाता
चुपचाप अपने होने को जस्टिफाई करता
वह एक चुपचाप क़िस्म गाँव होता है.


एक अच्छे गाँव से मिलने
चुपचाप जाना पड़ता है
बिना किसी योजना की घोषणा किए
बिना नारा लगाए
बिना मुद्दे उछाले
बिना परचम लहराए
एक अच्छे आदमी की तरह .


केलंग , 21 मई 2010


मुझे इस गाँव को ठीक से देखना है

इस गाँव तक पहुँच गया है

एक काला, चिकना, लम्बा-चौडा राजमार्ग


जीभ लपलपाता
लार टपकाता एक लालची सरीसृप


पी गया है झरनों का सारा पानी
चाट गया है पेड़ों की तमाम पत्तियाँ


इस गाँव की आँखों में
झौंक दी गई है ढेर सारी धूल


इस गाँव की हरी भरी देह
बदरंग कर दी गई है


चैन गायब है
इस गाँव के मन में
सपनों की बयार नहीं
संशय का गर्दा उड़ रहा है


बड़े बड़े डायनोसॉर घूम रहे हैं
इस गाँव के स्वप्न में
तीतर, कोयल और हिरन नहीं
दनदना रहे हैं हेलिकॉप्टर
और भीमकाय डम्पर


इस काले चिकने लम्बे चौड़े राजमार्ग से होकर
इस गाँव में आया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौड़ा आदमी


इस गाँव के बच्चे हैरान हैं
कि इस गाँव के सभी बड़े लोग एक स्वर में
उस वाहियात आदमी को ‘बड़ा आदमी’ बतला रहे
जो उन के ‘टीपू’ खेलने की जगह पर
काला धुँआ उड़ाने वाली मशीन लगाना चाहता है !


जो उनके खिलौना पनचक्कियों
और नन्हे गुड्डे गुड्डियों को
धकियाता रौन्दता आगे निकल जाना चाहता है !


मुझे इस गाँव को
एक ‘बड़े आदमी’ की तरह डाक बंगले
या शेवेर्ले की खिड़की से नहीं देखना है


मुझे इस गाँव को
उन ‘छोटे बच्चों’ की तरह अपने
कच्चे घर के जर्जर किवाड़ों से देखना है
और महसूसना है
इन दीवारों का दरक जाना
इन पल्लों का खड़खड़ाना
इस गाँव की बुनियादों का हिल जाना !

पल-लमो, जून 7, 2010

Monday 17 May 2010

नीचे देखते हुए चलना।

सब से ज्यादा मजा है

नीचे देखते हुए चलने में

और नीचे गिरी हुई हर सुंदर चीज को सुंदर कहने में


आज मैं माफ कर देना चाहता हूं

अब तक की तमाम बेहूदा चीजों को

जो दनदनाती हुई आई थीं मेरी जिंदगी में

और नीचे देखते हुए चलना चाहता हूं सच्चे मन से।


नीचे देखते देखते

आखिरकार उबर ही जाऊंगा उस खुशफहमी से

कि दुनिया वही है जो मेरे सामने है-

खूबसूरत औरतें, बढिय़ा शराब, चकाचक गाडिय़ां

और तमाम खुशनुमा चीजें

जिन के लिए एक हसरत बनी रहती है भीतर।


एक दिन मानने लग जाऊंगा नीचे देखते-देखते

कि एक संसार है

बेतरह रौंद दी गई मिट्टी की लीकों का

कीड़ों और घास पत्तियों के साथ

देखने लग जाऊंगा नीचे देखते-देखते

अब तक अनदेखे रह गए

मेरे अपने ही घिसे हुए चप्पल और पांयचों के दाग

एक भूखी ठांठ गाय की थूथन

एक काली लड़की की खरोंच वाली उंगलियां

मिटी में गरक हो गई कुछ काम की चीज खोजती हुई.....

बीड़ी के टोटे

चिडिय़ों और तितलियों के टूटे हुए पंख

मरे हुए चूहे धागों से बंधे हुए

रैपर, ढक्कन, टीन......

बरत कर फेंक दी गई और भी कितनी ही चीजें !


उस संसार को देखना

एक गुमशुदा अतीत की ख्वाहिशों में झांकने जैसा होगा

और इससे पहले कि धूल में आधी दबी उस अठन्नी को

लपक कर मु_ी में बंद कर लूं

वैसी बीसियों चमकने लग जाएंगी यहां-वहां

दूर धुंधलके से तैरकर आता अद्भुत स्वप्न जैसा

बरबस सच हो जाना चाहता हुआ।


ठीक ऐसा ही कोई दिन होगा

नीचे देखते-देखते

जब गुपचुप प्रवेश कर जाऊंगा उन यादों में

जब मैं भी वहां नीचे था कहीं

बहुत नीचे, और बेहद छोटा, बच्चा सा

यहां ऊपर पहुंचने के लिए बड़ा छटपटाता....

और समझने लग जाऊंगा कि अच्छा किया

जो तय कर लिया वक्त रहते

नीचे देखते हुए चलना।

Monday 26 April 2010

कुछ बातें काम की

अजेय भाई की क्षणिकाएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। अजेय भाई, आप इतने नाराज़ हो जाओगे सोचा न था!!!!!!!!!!!!!!!
खैर आपकी याद में आपकी ही कुछ कविताएँ:-







चार क्षणिकाएँ



एक


सुनो,
आज ईश्वर काम पर है

तुम भी लग जाओ
आज प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी।

दो

उसके दो हाथों में
चार काम दे दिए
और कहा
बदतमीज़,
लातों से दरवाज़ा खोलता है!

तीन

आँखें आशंकित थीं
हाथों ने कर दिखाया।

चार

काम की जगह पर
सब कूड़ा बिखरा था
बस काम चमक रहा था
आग सा।