Saturday 22 January 2011

मां, हर्पीज़ और आदिम चांदनी

यह कोई आदिम युग ही होगा ।
वे लोग आधी-आधी रात तक जागे रहते हैं
साँसे रोक चाँद उगने की प्रतीक्षा में

जब कि सन्तरई-नीली चाँदनी ने पहले ही
पहाड़ के पीछे वाली घाटी में बिछना शुरू कर दिया है ।

चाँद के घटने-बढ़ने का हिसाब
तमाम कलाओं की बारीकियां
भोज पत्रों में दर्ज करते हैं वे सनकी लोग
पल, घड़ी, पहर और तिथियां
उन्हों ने इन ब्यौरों के मोटे भूरे ग्रन्थ बना रक्खें हैं ।

कुछ लोग एक झाड़ की ओट में
भारी धारदार खाण्डों से दुर्बल मृगशावकों के गले रेत रहे हैं ।
और कुछ अन्य
गुपचुप पड़ोसी कबीले पर हमले की योजनाएं बना रहे हैं ।
उन्हों ने बड़े-बड़े कद्दावर ऊंट और घोडे़ और कुत्ते पाल रखे हैं।
अपने पालतुओं के जैसे ही वहशी दरिन्दे हैं वे -
तगड़े, खूंखार, युद्धातुर ।
अपने निश्चयों में प्रतिबद्ध ।
अपने प्रारब्ध के प्रति निश्चिन्त ।

जाने कब से उनके आस-पास विचर रहा हूँ मैं
बलवान शिकारियों के उच्छिष्ठ पर पलने वाला लकड़बग्घा
हहराते अलाव पर भूने जा रहे लाल गोश्त की आदिम गंध पर आसक्त
मेरे अपने चाँद की प्रतीक्षा में ।

मुझे भी नीन्द नहीं आती आधी-आधी रात तक ।
मैं भी उतना ही उत्कट
उतना ही आश्वस्त
वैसे ही आँखें बिछाए
उतना ही क्रूर
उतना ही धूर्त
अपने निजी चेतनाकाश के फर्जी़ नक्षत्रों का कालचक्र तय करने
अपना ही एक छद्म पंचांग निर्धारित करने की फिराक में
अपना मनपसन्द अखबार ओढ़
(जिस में मेरे प्रिय कवि के मौत की खबर छपी है)
अपनी ही गुनगुनी चांन्दनी में सराबोर होने की कल्पना में
उतना ही रोमांचित ।
महकती फूल सी गुलाबी रक्कासा
पेश करने ही वाली है मदिरा की बूंदे
कि कैसी भीनी-भीनी खुश्बू आने लगी है
अचानक अखबार भीगने की !

यह बारिश ही होगी ।
चाँदनी में भीगे अक्षरों के पार
मैं बादलों की नीयत पढ़ने का प्रयास करता हूं ।
मेरे प्रिय कवि के गाढे़ अक्षर रह-रह कर उभरते हैं
बारिश में घुलमिल कर लुप्त हो जाते हैं
मैं पलकें झपकाता रह जाता हूं निरक्षरों सा
युगों से मैंने किसी और की कविता नहीं पढ़ी
किसी और का दर्द नहीं समझा
और भीतर का टीस गहराता ही गया है ।

मेरी बीमार बूढ़ी मां ने दबे पांव कमरे में प्रवेश किया है ।
मैं अखबारों के नीचे उसके टखनों का घाव देख सकता हूं ।
मेरी जांघों में असहनीय जलन हो आई है
जहां मां के जैसे फफोले उग आए हैं
चांन्दनी रात का चलता जादू रूक गया है
बन्जारों का डेरा तिरोहित हो गया है
मृग शावकों के ताज़ा लहू की गंध कायम है
गीले अखबार से भुने गोश्त की महक अभी उठ रही है
और मांं की तप्त आकांक्षाओं से छनते हुए आ रहे हैं
सिहरे-सहमे से शब्द -
बेटा जिस्म ठण्डा रहा है
यह ऊनी शाल ओढ़ा देना
जुराबों का यह जोड़ा भी .......
और तुम यह सोचते क्या रहते हो यहां लेटे-लेटे
कुछ करते क्यों नहीं बाहर जाकर ..

मुझे लगता है
मुझे अपनी चांन्दनी से बाहर भी जीना है ।

1998

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

चाँदनी के बाहर भी रात है।