Tuesday 24 May 2011

न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही !

बात चीत

ऐसे बेखटके शामिल हो जाने का मन था
उस बात चीत में जहाँ एक घोड़े वाला
और कुछ संगतराश थे ढाबे के चबूतरों पर
ऐसे कि किसी को अहसास ही न हो


वहाँ बात हो रही थी
कैसे कोई कौम किसी दूसरे कौम से अच्छा हो सकता है
और कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क से

कि कैसे जो अंगरेज थे
उन से अच्छे थे मुसलमान
और कैसे दोनो ही बेहतर थे हमसे

कि क्या अस्सल एका था बाहर के कौमों में
मतलब ये जो मुसल्ले बगैरे होते हैं
कि हम तो देखने को ही एक जैसे थे ऊपर से
और अन्दर खाते फटे हुए

सही गलत तो पता नहीं हो भाई,
हम अनपढ़ आदमी, क्या पता ?
पर देखाई देता है साफ साफ
कि वो ताक़तवर है अभी भी

अभी भी जैसे राज चलता है हम पे
उनका ही— एह !
कौन गिनता है हमें
और कहाँ कितना गिनता है
डंगर की तरह जुते हुए हैं उन्ही की चाकरी में – एह !

तो केलङ से बरलचा के रास्ते में
जीह के ओर्ले तर्फ एक ज़रोङ मिलता है आप को – एह !
पेले तो क्या घर क्या पेड़ कुच्छ नहीं था
खाली ही तो था – एह !
अब रुळिङ्बोर केते कोई दो चार घर बना लिए हैं
नाले के सिरे पे जो भी लाल पत्थर है
लाल भी क्या होणा अन्दर तो सुफेदै है
सब बाढ़ ने लाया है
एक दम बेकार
फाड़ मारो , बिखर जाएगा
कुबद का खान ऊपर ढाँक पर है
पहाड़ से सटा हुआ एक दम काला पत्थर
लक्कड़ जैसा मुलायम और साफ
काम करने को सौखा – एह !


बल्ती लोग थे तो मुसलमान
पर काम बड़ा पक्का किया
सब पानी का कुहुल
सारी पत्थर की घड़ाई
लौह्ल का सारा घर मे कुबद इन लोग बनाया
अस्सल जिम्दारी लौह्ल मे इन के बाद आया
बड़ा बड़ा से:रि इनो ही कोता --- एह !
और बेशक धरम तब्दील नही किया
जिस आलू की बात आज वो फकर से करते हैं
पता है, मिशन वाले ने उगाया
पैले क्या था ?

और हमारा आदमी असान फरमोश
गदर हुआ तो नालो के अन्दर भेड़ बकरी की तरह काट दिया
औरत का ज़ेबर छीना
बच्चा मार दिया
ए भगवान
कितना तो भगा दिया बोला जोत लंघा के
देबी सींग ने
हमारा ताऊ ने
मुंशी साजा राम ने
सब रेम् दिल भलमाणस थे --- एह !

और बंगाली पंजाबी साब भादर लोगों ने क्या किया
अंग्रेज से मिल कर
सब कीम्ती कीम्ती आईटम अम्रीका और लन्दन पुचाया
अजाबघ्रर बनाने के लिए – एह !

ये सब तेज़ खोपड़ी
ताक़त पास मे हो तो दमाग और भी तेज़ घूमता
बहुत तेज़ी से और एकदम उलटा
फिर हो गया पूरा कौम बदनाम एकाध आदमी करके
एक मछली ,
सारा तलाप खन – खराप , एह !

और पत्थरों के बारे में जो बातें थीं
वो भी लगभग वैसी ही थीं
कि उन मे से कुछ दर्ज वाले होते हैं
और कुछ बिना दर्ज वाले होते हैं

कि परतें कैसे बैठी रहतीं हैं
एक पर एक चिपकी हुईं
कि कहाँ कैसी कितनी चोट पड़ने पर
दर्ज दिखने लग जाते हैं साफ – साफ
जैसा मर्ज़ी पत्थर ले आईए आप
और जहाँ तक घड़ाई की बात है
चाहे एक अलग् थलग दीवार चिननी हो
या नया घर ही बनाना हो
या कुछ भी
दर्ज वाले पत्थर तो बिल्कुल कामयाब नहीं हैं

आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा
वह एक बिना दर्ज वाला पत्थर ही हो सकता है
जो गढ़ा जा सकता है मन मुआफिक़
कितने चाहे क्यूब काट लो उस के
और लम्बे में , मोटे में
कैसे भी डंडे निकाल लो
बस पहला फाड़ ठीक पड़ना चाहिए
और
बशर्ते कि मिस्त्री काँगड़े का हो – एह !

मिस्तरी तो कनौरिये भी ठीक हैं
कामरू का क़िला देखा है
बीर भद्दर वाला ?

अजी वो कनौरियों ने थोड़े बणाया
वो तो सराहणी रामपुरिए होणे

रेण देओ माहराज, काय के रामपुरिए
यहीं बल्हड़ थे सारे के सारे
सब साँगला में बस गए भले बकत में
रोज़गार तो था नहीं कोई
जाँह राजा ठाकर ले गया , चले गए – एह !

बुशैर का लाका है तो बसणे लायक , वाक़ई......

धूड़ बसणे लायक !
पूह तक तो बुरा ही हाल है
ढाँक ही ढाँक
नीचे सतलज – एह !

आगे आया चाँग- नको का एरिया
याँह नही बोलता कनौरी में , कोई नहीं
सारे के सारे भोट आ कर बस गए ऊपर से – एह !
बाँह की धरती भी उपजाऊ और घास भी मीठी

ञीरू से ले के ञुर्चा तक सब पैदावार
और पहाड़ के ऊपर रतनजोत – एह !

नीचे तो कुछ पैदा नहीं होता
और घास में टट्टी का मुश्क
हे भगवान .... घोड़े को भी पूरा नहीं होता
पेड़ पर फकत चुल्ली और न्यूज़ा – एह !

कनौर वाला नही खाता अनाज , कोई नहीं
तब तो भाषा भी अजीब है
न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही

पर भाई जी
सेब ने उनो को चमका दिया है – एह !

हिमाचल मे जिस एरिया ने सेब खाया
देख लो
रंग ढंग तो चलो मान लिया
ज़बान ही अलग हो गई है !


सेब हमारे यहाँ था तो पहले से ही
पर जो बेचने वाला फल था
वह एक इसाई ले के आया था
ऐसा नही कि कुल्लू को सेब ने ही उठाया था
क्या क्या धन्दे थे कैसे कैसे
किस को मालूम नहीं ?

वो तो कोई गोकल राम था
जो पंडत नेहरू के ठारा बार पुकारने पे भी
तबेले में छिपा रहा था
पनारसा के निचली तरफ
और ठारा दिन उस की मशीन रुकी रही
पानी से चलती थी भले बकत में

लाहौर की बी ए थी अगले की
पर शरम के मारे बाहर नहीं आया
तो क़िस्मत भी बचारे की तबेले में बन्द हो गई
बेद राम था तेज़ आदमी
पैर पकड़ के ज़मीने कराई अपने नाम

सोसाटी बणा के – एह !
आज मालिक बना हुआ है
पलाट काट के बेच रहा है
कलोनी खड़ी कर दी अगले ने

कौण पूछ सकता है ? – एह !

मैं केता हूँ कि लग्गे रेणा पड़्ता है

क्या पता कब दरवाज़ा खुल जाए – एह !

आखीर मे जब वहाँ से चलने को हुआ चुपचाप
तो तय था कि बातों की जो परतें थीं
वे तो हू ब हू वैसी ही थीं
जैसी समुदायों , मुल्कों , पत्थरों, घोड़ों और तमाम
ऐसी चीज़ों के होने व बने रहने की शर्तें थीं
एक के भीतर से खुलती हुई दूसरी थी
कोई तीसरी भी
कहीं कहीं नज़र आ जाती
बारीकियों में छिपी हुईं
जहाँ कोई जाना नही चाहता था
सच बात तो यह है कि
बात कहने के लिए आप को आवाज़ नहीं होना होता
जब कि परतों को सुनने के लिए आप को पूरा एक कान
और देख पाने के लिए आँख हो जाना होता था

मुझे लगा कि यही समय था
बात चीत के बारे बात करने का

कि एक ज़हनी दुनिया मे खर्च हो जाने से बचने के लिए
कितनी बड़ी नैमत है बातचीत ?

बेवजह भारी हुए बिना और बेमतलब अकड़े बिना
कड़क चा सुड़कते हुए,
अभी से तुम कहते रह सकते हो अपनी बातें
क्यों कि एक दिन तुम चुप हो जाने वाले हो


इत्ता बड़ा सत्त
वैसे भी इस धम्मड़ धूस दुनिया में एक गप्प
ही तो है ,
और अंतिम वाक्य जिसे छोड़ कर चले जाने का
क़तई मन नहीं था --

कि न भी हो अगर गप्प
तो उपयोग इस सत्त का क्या है
जेह बताओ तुम – एह ?

कुल्लू – 25.3.2011

Saturday 22 January 2011

मां, हर्पीज़ और आदिम चांदनी

यह कोई आदिम युग ही होगा ।
वे लोग आधी-आधी रात तक जागे रहते हैं
साँसे रोक चाँद उगने की प्रतीक्षा में

जब कि सन्तरई-नीली चाँदनी ने पहले ही
पहाड़ के पीछे वाली घाटी में बिछना शुरू कर दिया है ।

चाँद के घटने-बढ़ने का हिसाब
तमाम कलाओं की बारीकियां
भोज पत्रों में दर्ज करते हैं वे सनकी लोग
पल, घड़ी, पहर और तिथियां
उन्हों ने इन ब्यौरों के मोटे भूरे ग्रन्थ बना रक्खें हैं ।

कुछ लोग एक झाड़ की ओट में
भारी धारदार खाण्डों से दुर्बल मृगशावकों के गले रेत रहे हैं ।
और कुछ अन्य
गुपचुप पड़ोसी कबीले पर हमले की योजनाएं बना रहे हैं ।
उन्हों ने बड़े-बड़े कद्दावर ऊंट और घोडे़ और कुत्ते पाल रखे हैं।
अपने पालतुओं के जैसे ही वहशी दरिन्दे हैं वे -
तगड़े, खूंखार, युद्धातुर ।
अपने निश्चयों में प्रतिबद्ध ।
अपने प्रारब्ध के प्रति निश्चिन्त ।

जाने कब से उनके आस-पास विचर रहा हूँ मैं
बलवान शिकारियों के उच्छिष्ठ पर पलने वाला लकड़बग्घा
हहराते अलाव पर भूने जा रहे लाल गोश्त की आदिम गंध पर आसक्त
मेरे अपने चाँद की प्रतीक्षा में ।

मुझे भी नीन्द नहीं आती आधी-आधी रात तक ।
मैं भी उतना ही उत्कट
उतना ही आश्वस्त
वैसे ही आँखें बिछाए
उतना ही क्रूर
उतना ही धूर्त
अपने निजी चेतनाकाश के फर्जी़ नक्षत्रों का कालचक्र तय करने
अपना ही एक छद्म पंचांग निर्धारित करने की फिराक में
अपना मनपसन्द अखबार ओढ़
(जिस में मेरे प्रिय कवि के मौत की खबर छपी है)
अपनी ही गुनगुनी चांन्दनी में सराबोर होने की कल्पना में
उतना ही रोमांचित ।
महकती फूल सी गुलाबी रक्कासा
पेश करने ही वाली है मदिरा की बूंदे
कि कैसी भीनी-भीनी खुश्बू आने लगी है
अचानक अखबार भीगने की !

यह बारिश ही होगी ।
चाँदनी में भीगे अक्षरों के पार
मैं बादलों की नीयत पढ़ने का प्रयास करता हूं ।
मेरे प्रिय कवि के गाढे़ अक्षर रह-रह कर उभरते हैं
बारिश में घुलमिल कर लुप्त हो जाते हैं
मैं पलकें झपकाता रह जाता हूं निरक्षरों सा
युगों से मैंने किसी और की कविता नहीं पढ़ी
किसी और का दर्द नहीं समझा
और भीतर का टीस गहराता ही गया है ।

मेरी बीमार बूढ़ी मां ने दबे पांव कमरे में प्रवेश किया है ।
मैं अखबारों के नीचे उसके टखनों का घाव देख सकता हूं ।
मेरी जांघों में असहनीय जलन हो आई है
जहां मां के जैसे फफोले उग आए हैं
चांन्दनी रात का चलता जादू रूक गया है
बन्जारों का डेरा तिरोहित हो गया है
मृग शावकों के ताज़ा लहू की गंध कायम है
गीले अखबार से भुने गोश्त की महक अभी उठ रही है
और मांं की तप्त आकांक्षाओं से छनते हुए आ रहे हैं
सिहरे-सहमे से शब्द -
बेटा जिस्म ठण्डा रहा है
यह ऊनी शाल ओढ़ा देना
जुराबों का यह जोड़ा भी .......
और तुम यह सोचते क्या रहते हो यहां लेटे-लेटे
कुछ करते क्यों नहीं बाहर जाकर ..

मुझे लगता है
मुझे अपनी चांन्दनी से बाहर भी जीना है ।

1998