Monday 18 October 2010

जो अन्धों की स्मृति में नहीं है

हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.

भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए

ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं

प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर .....
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !

बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010

12 comments:

रतन चंद 'रत्नेश' said...

भाई अजेय, पहाड पर इस सुन्दर कविता के लिए बचाई...

केवल राम said...

अजय भाई आपकी कवितायेँ पत्रिकाओं में पढ़ी थी .....ब्लॉग पर पढ़कर आनंद आ गया ...जारी रखें ...शुक्रिया

लीना मल्होत्रा said...

hamari zaroorte kitni kam hai aur ichhaye kitni zyada

लीना मल्होत्रा said...

bahut prabhav chhodti hai kavita. saabhar

Richa P Madhwani said...

nice ..

संजय भास्‍कर said...

अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!

संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

munshi said...

बेहद तमीजदार..........शुक्रिया

Dayanand Arya said...
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Dayanand Arya said...
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Dayanand Arya said...
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Dayanand Arya said...

ऐसे ही ब्लॉग्स कबसे तलाश थी

Dayanand Arya said...
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