tag:blogger.com,1999:blog-34637350597548511282024-02-20T16:16:49.026-08:00अजेय की कविताएंPrakash Badalhttp://www.blogger.com/profile/04530642353450506019noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-33948190385916561302011-05-24T21:11:00.000-07:002011-05-24T21:17:51.758-07:00न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही !बात चीत <br /><br />ऐसे बेखटके शामिल हो जाने का मन था <br />उस बात चीत में जहाँ एक घोड़े वाला <br />और कुछ संगतराश थे ढाबे के चबूतरों पर <br />ऐसे कि किसी को अहसास ही न हो <br /><br /><br />वहाँ बात हो रही थी <br />कैसे कोई कौम किसी दूसरे कौम से अच्छा हो सकता है <br />और कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क से <br /><br />कि कैसे जो अंगरेज थे <br />उन से अच्छे थे मुसलमान <br />और कैसे दोनो ही बेहतर थे हमसे <br /><br />कि क्या अस्सल एका था बाहर के कौमों में <br />मतलब ये जो मुसल्ले बगैरे होते हैं <br />कि हम तो देखने को ही एक जैसे थे ऊपर से <br />और अन्दर खाते फटे हुए <br /><br />सही गलत तो पता नहीं हो भाई, <br />हम अनपढ़ आदमी, क्या पता ? <br />पर देखाई देता है साफ साफ <br />कि वो ताक़तवर है अभी भी <br /><br />अभी भी जैसे राज चलता है हम पे <br />उनका ही— एह ! <br />कौन गिनता है हमें <br />और कहाँ कितना गिनता है <br />डंगर की तरह जुते हुए हैं उन्ही की चाकरी में – एह ! <br /><br />तो केलङ से बरलचा के रास्ते में <br />जीह के ओर्ले तर्फ एक ज़रोङ मिलता है आप को – एह ! <br />पेले तो क्या घर क्या पेड़ कुच्छ नहीं था <br />खाली ही तो था – एह ! <br />अब रुळिङ्बोर केते कोई दो चार घर बना लिए हैं <br />नाले के सिरे पे जो भी लाल पत्थर है <br />लाल भी क्या होणा अन्दर तो सुफेदै है <br />सब बाढ़ ने लाया है <br />एक दम बेकार <br />फाड़ मारो , बिखर जाएगा <br />कुबद का खान ऊपर ढाँक पर है <br />पहाड़ से सटा हुआ एक दम काला पत्थर<br />लक्कड़ जैसा मुलायम और साफ <br />काम करने को सौखा – एह ! <br /><br /><br />बल्ती लोग थे तो मुसलमान <br />पर काम बड़ा पक्का किया <br />सब पानी का कुहुल <br />सारी पत्थर की घड़ाई <br />लौह्ल का सारा घर मे कुबद इन लोग बनाया <br />अस्सल जिम्दारी लौह्ल मे इन के बाद आया <br />बड़ा बड़ा से:रि इनो ही कोता --- एह ! <br />और बेशक धरम तब्दील नही किया <br />जिस आलू की बात आज वो फकर से करते हैं <br />पता है, मिशन वाले ने उगाया <br />पैले क्या था ? <br /><br />और हमारा आदमी असान फरमोश <br />गदर हुआ तो नालो के अन्दर भेड़ बकरी की तरह काट दिया <br />औरत का ज़ेबर छीना <br />बच्चा मार दिया <br />ए भगवान <br />कितना तो भगा दिया बोला जोत लंघा के <br />देबी सींग ने <br />हमारा ताऊ ने <br />मुंशी साजा राम ने <br />सब रेम् दिल भलमाणस थे --- एह ! <br /><br />और बंगाली पंजाबी साब भादर लोगों ने क्या किया <br />अंग्रेज से मिल कर <br />सब कीम्ती कीम्ती आईटम अम्रीका और लन्दन पुचाया <br />अजाबघ्रर बनाने के लिए – एह ! <br /><br />ये सब तेज़ खोपड़ी <br />ताक़त पास मे हो तो दमाग और भी तेज़ घूमता <br />बहुत तेज़ी से और एकदम उलटा <br />फिर हो गया पूरा कौम बदनाम एकाध आदमी करके <br />एक मछली , <br />सारा तलाप खन – खराप , एह ! <br /><br />और पत्थरों के बारे में जो बातें थीं <br />वो भी लगभग वैसी ही थीं <br />कि उन मे से कुछ दर्ज वाले होते हैं <br />और कुछ बिना दर्ज वाले होते हैं <br /><br />कि परतें कैसे बैठी रहतीं हैं <br />एक पर एक चिपकी हुईं <br />कि कहाँ कैसी कितनी चोट पड़ने पर <br />दर्ज दिखने लग जाते हैं साफ – साफ <br />जैसा मर्ज़ी पत्थर ले आईए आप <br />और जहाँ तक घड़ाई की बात है<br />चाहे एक अलग् थलग दीवार चिननी हो <br />या नया घर ही बनाना हो <br />या कुछ भी <br />दर्ज वाले पत्थर तो बिल्कुल कामयाब नहीं हैं <br /><br />आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा <br />वह एक बिना दर्ज वाला पत्थर ही हो सकता है <br />जो गढ़ा जा सकता है मन मुआफिक़ <br />कितने चाहे क्यूब काट लो उस के <br />और लम्बे में , मोटे में <br />कैसे भी डंडे निकाल लो <br />बस पहला फाड़ ठीक पड़ना चाहिए <br />और <br />बशर्ते कि मिस्त्री काँगड़े का हो – एह ! <br /><br />मिस्तरी तो कनौरिये भी ठीक हैं <br />कामरू का क़िला देखा है <br />बीर भद्दर वाला ? <br /><br />अजी वो कनौरियों ने थोड़े बणाया <br />वो तो सराहणी रामपुरिए होणे <br /><br />रेण देओ माहराज, काय के रामपुरिए <br />यहीं बल्हड़ थे सारे के सारे <br />सब साँगला में बस गए भले बकत में <br />रोज़गार तो था नहीं कोई <br />जाँह राजा ठाकर ले गया , चले गए – एह ! <br /><br />बुशैर का लाका है तो बसणे लायक , वाक़ई...... <br /><br />धूड़ बसणे लायक ! <br />पूह तक तो बुरा ही हाल है <br />ढाँक ही ढाँक <br />नीचे सतलज – एह ! <br /><br />आगे आया चाँग- नको का एरिया <br />याँह नही बोलता कनौरी में , कोई नहीं <br />सारे के सारे भोट आ कर बस गए ऊपर से – एह ! <br />बाँह की धरती भी उपजाऊ और घास भी मीठी <br /><br />ञीरू से ले के ञुर्चा तक सब पैदावार <br />और पहाड़ के ऊपर रतनजोत – एह ! <br /><br />नीचे तो कुछ पैदा नहीं होता <br />और घास में टट्टी का मुश्क <br />हे भगवान .... घोड़े को भी पूरा नहीं होता <br />पेड़ पर फकत चुल्ली और न्यूज़ा – एह ! <br /><br />कनौर वाला नही खाता अनाज , कोई नहीं <br />तब तो भाषा भी अजीब है <br />न भोटी में, न हिन्दी में; अज्ज्ज्जीब ही <br /><br />पर भाई जी <br />सेब ने उनो को चमका दिया है – एह ! <br /><br />हिमाचल मे जिस एरिया ने सेब खाया <br />देख लो <br />रंग ढंग तो चलो मान लिया <br />ज़बान ही अलग हो गई है ! <br /><br /><br />सेब हमारे यहाँ था तो पहले से ही <br />पर जो बेचने वाला फल था <br />वह एक इसाई ले के आया था <br />ऐसा नही कि कुल्लू को सेब ने ही उठाया था <br />क्या क्या धन्दे थे कैसे कैसे <br />किस को मालूम नहीं ? <br /><br />वो तो कोई गोकल राम था <br />जो पंडत नेहरू के ठारा बार पुकारने पे भी <br />तबेले में छिपा रहा था <br />पनारसा के निचली तरफ <br />और ठारा दिन उस की मशीन रुकी रही <br />पानी से चलती थी भले बकत में <br /><br />लाहौर की बी ए थी अगले की <br />पर शरम के मारे बाहर नहीं आया <br />तो क़िस्मत भी बचारे की तबेले में बन्द हो गई <br />बेद राम था तेज़ आदमी<br />पैर पकड़ के ज़मीने कराई अपने नाम <br /><br />सोसाटी बणा के – एह ! <br />आज मालिक बना हुआ है <br />पलाट काट के बेच रहा है <br />कलोनी खड़ी कर दी अगले ने <br /><br />कौण पूछ सकता है ? – एह ! <br /><br />मैं केता हूँ कि लग्गे रेणा पड़्ता है <br /><br />क्या पता कब दरवाज़ा खुल जाए – एह ! <br /><br />आखीर मे जब वहाँ से चलने को हुआ चुपचाप <br />तो तय था कि बातों की जो परतें थीं <br />वे तो हू ब हू वैसी ही थीं <br />जैसी समुदायों , मुल्कों , पत्थरों, घोड़ों और तमाम <br />ऐसी चीज़ों के होने व बने रहने की शर्तें थीं <br />एक के भीतर से खुलती हुई दूसरी थी<br />कोई तीसरी भी <br />कहीं कहीं नज़र आ जाती <br />बारीकियों में छिपी हुईं <br />जहाँ कोई जाना नही चाहता था<br />सच बात तो यह है कि <br />बात कहने के लिए आप को आवाज़ नहीं होना होता <br />जब कि परतों को सुनने के लिए आप को पूरा एक कान <br />और देख पाने के लिए आँख हो जाना होता था<br /><br />मुझे लगा कि यही समय था <br />बात चीत के बारे बात करने का <br /><br />कि एक ज़हनी दुनिया मे खर्च हो जाने से बचने के लिए<br />कितनी बड़ी नैमत है बातचीत ? <br /><br />बेवजह भारी हुए बिना और बेमतलब अकड़े बिना<br />कड़क चा सुड़कते हुए, <br />अभी से तुम कहते रह सकते हो अपनी बातें <br />क्यों कि एक दिन तुम चुप हो जाने वाले हो <br /><br /><br />इत्ता बड़ा सत्त <br />वैसे भी इस धम्मड़ धूस दुनिया में एक गप्प <br />ही तो है , <br />और अंतिम वाक्य जिसे छोड़ कर चले जाने का <br />क़तई मन नहीं था -- <br /><br />कि न भी हो अगर गप्प <br />तो उपयोग इस सत्त का क्या है <br />जेह बताओ तुम – एह ? <br /><br /> कुल्लू – 25.3.2011अजेयhttp://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-77303003570197031682011-01-22T01:38:00.000-08:002011-01-22T01:46:21.479-08:00मां, हर्पीज़ और आदिम चांदनीयह कोई आदिम युग ही होगा । <br />वे लोग आधी-आधी रात तक जागे रहते हैं <br />साँसे रोक चाँद उगने की प्रतीक्षा में <br /><br />जब कि सन्तरई-नीली चाँदनी ने पहले ही <br />पहाड़ के पीछे वाली घाटी में बिछना शुरू कर दिया है । <br /><br />चाँद के घटने-बढ़ने का हिसाब <br />तमाम कलाओं की बारीकियां <br />भोज पत्रों में दर्ज करते हैं वे सनकी लोग<br />पल, घड़ी, पहर और तिथियां <br />उन्हों ने इन ब्यौरों के मोटे भूरे ग्रन्थ बना रक्खें हैं । <br /><br />कुछ लोग एक झाड़ की ओट में <br />भारी धारदार खाण्डों से दुर्बल मृगशावकों के गले रेत रहे हैं । <br />और कुछ अन्य<br />गुपचुप पड़ोसी कबीले पर हमले की योजनाएं बना रहे हैं । <br />उन्हों ने बड़े-बड़े कद्दावर ऊंट और घोडे़ और कुत्ते पाल रखे हैं। <br />अपने पालतुओं के जैसे ही वहशी दरिन्दे हैं वे - <br />तगड़े, खूंखार, युद्धातुर । <br />अपने निश्चयों में प्रतिबद्ध । <br />अपने प्रारब्ध के प्रति निश्चिन्त ।<br /><br />जाने कब से उनके आस-पास विचर रहा हूँ मैं<br />बलवान शिकारियों के उच्छिष्ठ पर पलने वाला लकड़बग्घा <br />हहराते अलाव पर भूने जा रहे लाल गोश्त की आदिम गंध पर आसक्त <br />मेरे अपने चाँद की प्रतीक्षा में । <br /><br />मुझे भी नीन्द नहीं आती आधी-आधी रात तक ।<br />मैं भी उतना ही उत्कट <br />उतना ही आश्वस्त <br />वैसे ही आँखें बिछाए<br />उतना ही क्रूर<br />उतना ही धूर्त <br />अपने निजी चेतनाकाश के फर्जी़ नक्षत्रों का कालचक्र तय करने <br />अपना ही एक छद्म पंचांग निर्धारित करने की फिराक में <br />अपना मनपसन्द अखबार ओढ़ <br />(जिस में मेरे प्रिय कवि के मौत की खबर छपी है)<br />अपनी ही गुनगुनी चांन्दनी में सराबोर होने की कल्पना में <br />उतना ही रोमांचित । <br />महकती फूल सी गुलाबी रक्कासा <br />पेश करने ही वाली है मदिरा की बूंदे <br />कि कैसी भीनी-भीनी खुश्बू आने लगी है <br />अचानक अखबार भीगने की !<br /><br />यह बारिश ही होगी । <br />चाँदनी में भीगे अक्षरों के पार <br />मैं बादलों की नीयत पढ़ने का प्रयास करता हूं । <br />मेरे प्रिय कवि के गाढे़ अक्षर रह-रह कर उभरते हैं <br />बारिश में घुलमिल कर लुप्त हो जाते हैं <br />मैं पलकें झपकाता रह जाता हूं निरक्षरों सा<br />युगों से मैंने किसी और की कविता नहीं पढ़ी <br />किसी और का दर्द नहीं समझा <br />और भीतर का टीस गहराता ही गया है । <br /><br />मेरी बीमार बूढ़ी मां ने दबे पांव कमरे में प्रवेश किया है । <br />मैं अखबारों के नीचे उसके टखनों का घाव देख सकता हूं । <br />मेरी जांघों में असहनीय जलन हो आई है <br />जहां मां के जैसे फफोले उग आए हैं <br />चांन्दनी रात का चलता जादू रूक गया है <br />बन्जारों का डेरा तिरोहित हो गया है <br />मृग शावकों के ताज़ा लहू की गंध कायम है <br />गीले अखबार से भुने गोश्त की महक अभी उठ रही है <br />और मांं की तप्त आकांक्षाओं से छनते हुए आ रहे हैं <br />सिहरे-सहमे से शब्द - <br />बेटा जिस्म ठण्डा रहा है <br />यह ऊनी शाल ओढ़ा देना <br />जुराबों का यह जोड़ा भी ....... <br />और तुम यह सोचते क्या रहते हो यहां लेटे-लेटे <br />कुछ करते क्यों नहीं बाहर जाकर ..<br /><br />मुझे लगता है <br />मुझे अपनी चांन्दनी से बाहर भी जीना है । <br /><br />1998अजेयhttp://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-32414109393490190862010-10-18T11:31:00.000-07:002013-02-03T10:16:44.084-08:00जो अन्धों की स्मृति में नहीं है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: 130%;"><span style="font-size: 180%;"> <span style="font-size: large;">हमें याद</span><span style="font-size: large;"> है<br />हम तब भी यहीं थे<br />जब ये पहाड़ नहीं थे<br />फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए<br />फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा<br />और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.<br /><br />भूख हमे तब भी लगती थी<br />जब ये चूल्हे नहीं थे<br />फिर हम ने आकाश से आग को उतारा<br />और स्वादिष्ट पकवान बनाए<br /><br />ऐसी ही हँसी आती थी<br />जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था<br />तब भी नाचते और गाते थे<br />फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए<br />उन्हे दर्ज करना सीखा<br />और खूबसूरत कविताएं रचीं<br /><br />प्यार भी हम ऐसे ही करते थे<br />यही खुमारी होती थी<br />लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था<br />और हमारी नींद में शोर .....<br />ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं<br />ज़िन्दा ही त्वचाएं<br />फिर पता नहीं क्या हुआ था<br />अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया<br />और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !<br /><br />बिल्कुल याद नहीं पड़ता<br />क्या हुआ था ?</span></span></span>केलंग ,27.08.2010</div>
अजेयhttp://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-6570232678883907122010-09-18T21:38:00.001-07:002013-02-03T10:17:34.276-08:00हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका 'असिक्नी' आपकी नज़र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: blue; text-align: justify;">
<i><span style="font-size: large;">तकरीबन तीन साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद असिक्नी का <span style="color: orange;">दूसरा अंक</span> प्रकाशित हो गया है. <span style="color: cyan;"><span style="color: #6aa84f;">*असिक्नी *</span> </span>साहित्य एवम विचार की पत्रिका* है जो कि सुदूर हिमालय के सीमांत अहिन्दी प्रदेशों में हिन्दी भाषा तथा साहित्य को लोकप्रिय बनाने तथा इस क्षेत्र की आवाज़ को, यहाँ के सपनों और *संकटों* को शेष दुनिया तक पहुँचाने के उद्देश्य से <span style="color: #38761d;">रिंचेन ज़ङ्पो साहित्यिक -साँस्कृतिक सभा केलंग </span>अनियतकलीन प्रकाशित करवाती है. सभा के संस्थापक अध्यक्ष श्री त्सेरिंग दोर्जे हैं तथा पत्रिका का सम्पादन कुल्लू के युवा आलोचक <span style="color: #38761d;">निरंजन देव शर्मा</span> कर रहें हैं।</span></i><br />
<object align="middle" classid="clsid:d27cdb6e-ae6d-11cf-96b8-444553540000" codebase="http://fpdownload.macromedia.com/pub/shockwave/cabs/flash/swflash.cab#version=8,0,0,0" height="237" id="flipbook" width="600"><param name="allowScriptAccess" value="always" /><param name="movie" value="http://content.yudu.com/Library/A1p5uz/20100919084952/resources/flipbook.swf" /><param name="quality" value="high" /><param name="bgcolor" value="#ffffff" /><embed src="http://content.yudu.com/Library/A1p5uz/20100919084952/resources/flipbook.swf" width="600" height="237" name="flipbook" align="middle" quality="high" bgcolor="#ffffff" allowScriptAccess="always" type="application/x-shockwave-flash" pluginspage="http://www.macromedia.com/go/getflashplayer"></embed></object><br />
<div style="text-align: center;">
<a href="http://content.yudu.com/Library/A1p5uz/20100919084952/?refid=65043" target="_blank">अंक पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें</a></div>
<a href="http://www.yudu.com/"></a></div>
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<i style="color: blue;"><span style="font-size: large;">170 पृष्ठ की पत्रिका का गेट अप सुन्दर है, छपाई भी अच्छी है। मुख पृष्ठ पर तिब्बती थंका शैली में बनी बौद्ध देवी तारा की पेंटिंग है. भीतर के मुख्य आकर्षण हैं :<br />
स्पिति के प्रथम आधुनिक हिन्दी कवि <span style="color: #38761d;">मोहन सिंह </span>की कविता हिमाचल में समकालीन साहित्यिक परिदृष्य पर <span style="color: #38761d;">कृष्ण चन्द्र महादेविया</span> की रपट। <span style="color: #38761d;">परमानन्द</span> श्रीवास्तव द्वारा स्नोवा बार्नो की रचनाधर्मिता को पकड़ने सार्थक प्रयास। पश्चिमी भारत की सहरिया जनजाति पर र<span style="color: #6aa84f;">मेश चन्द्र मीणा</span> संस्मरण। <span style="color: #38761d;">विजेन्द्र </span>की किताब <span style="color: lime;"><span style="color: #38761d;">आधी रात</span> </span>के रंग पर <span style="color: #38761d;">बलदेव कृष्ण घरसंगी</span> और <a href="http://ajeyklg.blogspot.com/">अजेय</a> की महत्वपूर्ण टिप्पणियां। साथ में <span style="color: #38761d;">विजेन्द्र जी </span>के अद्भुत सॉनेट लाहुल के पटन क्षेत्र में बौद्ध समुदाय की विवाह परम्पराओं पर <span style="color: #38761d;">सतीश लोप्पा</span> का विवरणात्मक लेख। लाहुली समाज के विगत तीन शताब्दियों के संघर्ष का दिल्चस्प लेखा जोखा त्सेरिंग दोर्जे की कलम से। इतिहासकार <span style="color: #38761d;">तोब्दन</span> द्वारा परिवर्तन शील पुरातन गणतंत्रात्मक जनपद मलाणा पर क्रिटिकल रपट।नूर ज़हीर, <a href="http://ishitargirish.blogspot.com/">ईशिता आर 'गिरीश '</a>,<span style="color: #351c75;">ज्ञानप्रकाश विवेक </span>, <a href="http://murarisharma.blogspot.com/">मुरारी शर्मा </a>की कहानियां. मधुकर भारती,उरसेम लता, त्रिगर्ती, <a href="http://anupsethi.blogspot.com/">अनूप सेठी</a> , आत्माराम रंजन, सुरेश सेन, <span style="color: #38761d;">मोहन साहिल</span>, <span style="color: #38761d;">सुरेश सेन 'निशांत </span>'और <span style="color: #38761d;">सरोज परमार </span>सहित <span style="color: #38761d;">गनी</span>, <span style="color: #38761d;">नरेन्द्र, कल्पना ,बी. जोशी</span> इत्यादि की कविताएं. <a href="http://prakashbadal.blogspot.com/">प्रकाश बादल</a> की ग़ज़लें। हाशिए की संस्कृतियों और केन्द्र की सत्ता के द्वन्द्व पर विचरोत्तेजक आलेख, पत्र, व सम्पादकीय। पत्रिका मँगवाने का पता : <b><span style="color: #cc0000;">भारत भारती स्कूल, ढालपुर, कुल्लू, 175101 हि।प्र। </span><span style="color: #cc0000;">दूरभाष : 9816136900 </span></b></span></i><b><br />
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Prakash Badalhttp://www.blogger.com/profile/04530642353450506019noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-58316423225800005662010-08-17T02:14:00.000-07:002010-08-18T08:52:08.987-07:00यह जो गाँव है....... और उस में आदमी<strong><span style="font-size: large;">एक आदमी होता था</span></strong><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">पहले एक गोरेय्या होती थी</span><br />
<span style="font-size: large;">एक आदमी होता था</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन आदमी इतना ऊँचा उड़ा</span><br />
<span style="font-size: large;">कि गोरेय्या खो गई!</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">पहले एक पहाड़ होता था</span><br />
<span style="font-size: large;">एक आदमी होता था</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन आदमी ऐसे तन कर खड़ा</span><br />
<span style="font-size: large;">कि पहाड़ ढह गया!</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">पहले एक नदी होती थी</span><br />
<span style="font-size: large;">एक आदमी होता था</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन आदमी ऐसे वेग से बहा</span><br />
<span style="font-size: large;">कि नदी सो गई!</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">पहले एक पेड़ होता था</span><br />
<span style="font-size: large;">एक आदमी होता था</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन आदमी ऐसे ज़ोर से झूमा</span><br />
<span style="font-size: large;">कि पेड़ सूख गया!</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">पहले एक पृथ्वी होती थी</span><br />
<span style="font-size: large;">एक आदमी होता था</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन आदमी इतने ज़ोर से घूमा</span><br />
<span style="font-size: large;">कि पृथ्वी रो पड़ी!</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">.... पहले एक आदमी होता था.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
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<strong><span style="font-size: large;">मई 4, 2010. कुल्लू</span></strong><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<strong><span style="font-size: large;">एक अच्छा गाँव</span></strong><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">एक अच्छे आदमी की तरह</span><br />
<span style="font-size: large;">एक अच्छा गाँव भी</span><br />
<span style="font-size: large;">एक बहुचर्चित गाँव नहीं होता.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी गति से आगे सरकता</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी पाठशाला में ककहरा सीखता</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी ज़िन्दगी के पहाड़े गुनगुनाता</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी खड़िया से</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी सलेट पट्टी पे</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने भविष्य की रेखाएँ उकेरता</span><br />
<span style="font-size: large;">वह एक गुमनाम क़िस्म का गाँव होता है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने कुँए से पानी पीता</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी कुदाली से</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी मिट्टी गोड़ता</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी फसल खाता</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने जंगल के बियाबानों में पसरा</span><br />
<span style="font-size: large;">वह एक गुमसुम क़िस्म का गाँव होता है.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी चटाईयों और टोकरियों पर</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने सपनों की अल्पनाएं बुनता</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने आँगन की दुपहरी में</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी खटिया पर लेटा</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी यादों का हुक्का गुड़गुड़ाता</span><br />
<span style="font-size: large;">चुपचाप अपने होने को जस्टिफाई करता</span><br />
<span style="font-size: large;">वह एक चुपचाप क़िस्म गाँव होता है.</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">एक अच्छे गाँव से मिलने</span><br />
<span style="font-size: large;">चुपचाप जाना पड़ता है</span><br />
<span style="font-size: large;">बिना किसी योजना की घोषणा किए</span><br />
<span style="font-size: large;">बिना नारा लगाए</span><br />
<span style="font-size: large;">बिना मुद्दे उछाले</span><br />
<span style="font-size: large;">बिना परचम लहराए</span><br />
<span style="font-size: large;">एक अच्छे आदमी की तरह .</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<strong><span style="font-size: large;">केलंग , 21 मई 2010</span></strong><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे इस गाँव को ठीक से देखना है<br />
<br />
इस गाँव तक पहुँच गया है</span><br />
<span style="font-size: large;">एक काला, चिकना, लम्बा-चौडा राजमार्ग</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">जीभ लपलपाता</span><br />
<span style="font-size: large;">लार टपकाता एक लालची सरीसृप</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">पी गया है झरनों का सारा पानी</span><br />
<span style="font-size: large;">चाट गया है पेड़ों की तमाम पत्तियाँ</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">इस गाँव की आँखों में</span><br />
<span style="font-size: large;">झौंक दी गई है ढेर सारी धूल</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">इस गाँव की हरी भरी देह</span><br />
<span style="font-size: large;">बदरंग कर दी गई है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">चैन गायब है</span><br />
<span style="font-size: large;">इस गाँव के मन में</span><br />
<span style="font-size: large;">सपनों की बयार नहीं</span><br />
<span style="font-size: large;">संशय का गर्दा उड़ रहा है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">बड़े बड़े डायनोसॉर घूम रहे हैं</span><br />
<span style="font-size: large;">इस गाँव के स्वप्न में</span><br />
<span style="font-size: large;">तीतर, कोयल और हिरन नहीं</span><br />
<span style="font-size: large;">दनदना रहे हैं हेलिकॉप्टर</span><br />
<span style="font-size: large;">और भीमकाय डम्पर</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">इस काले चिकने लम्बे चौड़े राजमार्ग से होकर</span><br />
<span style="font-size: large;">इस गाँव में आया है</span><br />
<span style="font-size: large;">एक काला, चिकना, लम्बा-चौड़ा आदमी</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">इस गाँव के बच्चे हैरान हैं</span><br />
<span style="font-size: large;">कि इस गाँव के सभी बड़े लोग एक स्वर में</span><br />
<span style="font-size: large;">उस वाहियात आदमी को ‘बड़ा आदमी’ बतला रहे</span><br />
<span style="font-size: large;">जो उन के ‘टीपू’ खेलने की जगह पर</span><br />
<span style="font-size: large;">काला धुँआ उड़ाने वाली मशीन लगाना चाहता है !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">जो उनके खिलौना पनचक्कियों</span><br />
<span style="font-size: large;">और नन्हे गुड्डे गुड्डियों को</span><br />
<span style="font-size: large;">धकियाता रौन्दता आगे निकल जाना चाहता है !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे इस गाँव को</span><br />
<span style="font-size: large;">एक ‘बड़े आदमी’ की तरह डाक बंगले</span><br />
<span style="font-size: large;">या शेवेर्ले की खिड़की से नहीं देखना है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />
</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे इस गाँव को</span><br />
<span style="font-size: large;">उन ‘छोटे बच्चों’ की तरह अपने</span><br />
<span style="font-size: large;">कच्चे घर के जर्जर किवाड़ों से देखना है</span><br />
<span style="font-size: large;">और महसूसना है</span><br />
<span style="font-size: large;">इन दीवारों का दरक जाना</span><br />
<span style="font-size: large;">इन पल्लों का खड़खड़ाना</span><br />
<span style="font-size: large;">इस गाँव की बुनियादों का हिल जाना !</span><br />
<strong><span style="font-size: large;"></span></strong><br />
<strong><span style="font-size: large;">पल-लमो, जून 7, 2010<br />
</span></strong>अजेयhttp://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-57279463008406466982010-05-17T21:16:00.000-07:002010-05-17T21:22:21.456-07:00नीचे देखते हुए चलना।सब से ज्यादा मजा है <br /><br />नीचे देखते हुए चलने में <br /><br />और नीचे गिरी हुई हर सुंदर चीज को सुंदर कहने में <br /><br /><br />आज मैं माफ कर देना चाहता हूं <br /><br />अब तक की तमाम बेहूदा चीजों को <br /><br />जो दनदनाती हुई आई थीं मेरी जिंदगी में <br /><br />और नीचे देखते हुए चलना चाहता हूं सच्चे मन से। <br /><br /><br />नीचे देखते देखते <br /><br />आखिरकार उबर ही जाऊंगा उस खुशफहमी से <br /><br />कि दुनिया वही है जो मेरे सामने है- <br /><br />खूबसूरत औरतें, बढिय़ा शराब, चकाचक गाडिय़ां <br /><br />और तमाम खुशनुमा चीजें <br /><br />जिन के लिए एक हसरत बनी रहती है भीतर। <br /><br /><br />एक दिन मानने लग जाऊंगा नीचे देखते-देखते <br /><br />कि एक संसार है <br /><br />बेतरह रौंद दी गई मिट्टी की लीकों का <br /><br />कीड़ों और घास पत्तियों के साथ <br /><br />देखने लग जाऊंगा नीचे देखते-देखते <br /><br />अब तक अनदेखे रह गए <br /><br />मेरे अपने ही घिसे हुए चप्पल और पांयचों के दाग <br /><br />एक भूखी ठांठ गाय की थूथन <br /><br />एक काली लड़की की खरोंच वाली उंगलियां <br /><br />मिटी में गरक हो गई कुछ काम की चीज खोजती हुई..... <br /><br />बीड़ी के टोटे <br /><br />चिडिय़ों और तितलियों के टूटे हुए पंख <br /><br />मरे हुए चूहे धागों से बंधे हुए <br /><br />रैपर, ढक्कन, टीन...... <br /><br />बरत कर फेंक दी गई और भी कितनी ही चीजें ! <br /><br /><br />उस संसार को देखना <br /><br />एक गुमशुदा अतीत की ख्वाहिशों में झांकने जैसा होगा <br /><br />और इससे पहले कि धूल में आधी दबी उस अठन्नी को <br /><br />लपक कर मु_ी में बंद कर लूं <br /><br />वैसी बीसियों चमकने लग जाएंगी यहां-वहां <br /><br />दूर धुंधलके से तैरकर आता अद्भुत स्वप्न जैसा <br /><br />बरबस सच हो जाना चाहता हुआ। <br /><br /><br />ठीक ऐसा ही कोई दिन होगा <br /><br />नीचे देखते-देखते <br /><br />जब गुपचुप प्रवेश कर जाऊंगा उन यादों में <br /><br />जब मैं भी वहां नीचे था कहीं <br /><br />बहुत नीचे, और बेहद छोटा, बच्चा सा <br /><br />यहां ऊपर पहुंचने के लिए बड़ा छटपटाता.... <br /><br />और समझने लग जाऊंगा कि अच्छा किया <br /><br />जो तय कर लिया वक्त रहते <br /><br />नीचे देखते हुए चलना।अजेयhttp://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-36322887214825863812010-04-26T08:18:00.000-07:002010-04-26T08:18:58.400-07:00कुछ बातें काम की<span style="color: red;"><strong><span style="font-size: x-large;">अजेय</span></strong> <strong><span style="font-size: large;">भाई की क्षणिकाएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। अजेय भाई, आप इतने नाराज़ हो जाओगे सोचा न था!!!!!!!!!!!!!!!</span></strong></span> <br />
<strong><span style="color: red;">खैर आपकी याद में आपकी ही कुछ कविताएँ:-</span></strong><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<span style="color: lime; font-size: x-large;"><strong>चार क्षणिकाएँ</strong></span><br />
<br />
<br />
<br />
<span style="color: red; font-size: large;"><strong>एक</strong></span><br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;"><strong>सुनो,<br />
आज ईश्वर काम पर है</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>तुम भी लग जाओ</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>आज प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी।</strong></span><br />
<br />
<span style="color: red; font-size: x-large;"><strong>दो</strong></span><br />
<br />
<span style="font-size: large;"><strong>उसके दो हाथों में</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>चार काम दे दिए</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>और कहा</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>बदतमीज़,</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>लातों से दरवाज़ा खोलता है!</strong></span><br />
<br />
<span style="color: red; font-size: large;"><strong>तीन </strong></span><br />
<br />
<span style="font-size: large;"><strong>आँखें आशंकित थीं</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>हाथों ने कर दिखाया।</strong></span><br />
<br />
<strong><span style="color: red; font-size: x-large;">चार</span></strong><br />
<br />
<span style="font-size: large;"><strong>काम की जगह पर</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>सब कूड़ा बिखरा था</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>बस काम चमक रहा था</strong></span><br />
<span style="font-size: large;"><strong>आग सा।</strong></span>Prakash Badalhttp://www.blogger.com/profile/04530642353450506019noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-56702705201333796662009-09-29T06:09:00.000-07:002009-09-29T06:19:47.666-07:00कविता ख़त्म नहीं होती<a href="http://ajeyklg.blogspot.com/"><span style="font-size:180%;color:#990000;"><strong>अजेय</strong></span></a><span style="color:#990000;"><strong> भाई मेरे पसंदीदा कवियों में एक हैं जिनकी कविताएँ पढ़कर मैं झूमता रहता हूँ। बहुत दिनों ब्लॉगिंग से अछूता रहने के बाद पुनः लौटा तो उनकी एक कविता हाथ लगी उम्मीद है आपको </strong></span><a href="http://ajeyklg.blogspot.com/"><span style="color:#990000;"><strong>अजेय </strong></span></a><strong><span style="color:#990000;">भाई की ये कविता पसन्द आएगी।</span> </strong><br /><strong></strong><br /><strong></strong><br /><strong>(मेन्तोसा1 पर एडवेंचर टीम)</strong><br /><span style="font-size:130%;">पैरों तक उतर आता है आकाश<br />यहां इस ऊँचाई पर<br />लहराने लगते हैं चारों ओर<br />मौसम के धुंधराले मिजाज़<br />उदासीन<br />अनाविष्ट<br />कड़कते हैं न बरसते<br />पी जाते हैं हवा की नमी<br />सोख लेते हैं बिजली की आग।<br /><br />कलकल शब्द झरते हैं केवल<br />बर्फीली तहों के नीचे ठंडी खोहों में<br />यदा-कदा<br />अपने ही लय में टपकता रहता है राग।<br /><br />परत-दर-परत खुलते हैं<br />अनगिनत अनछुए बिम्बों के रहस्य<br />जिनमें सोई रहती है ज़िद<br />छोटी सी<br />कविता लिख डालने की।<br /><br />ऐसे कितने ही<br />धुर वीरान प्रदेशों में<br />निरंतर लिखी जा रही होगी<br />कविता खत्म नही होती,<br />दोस्त ....................<br />संचित होती रहती है वह तो<br />जैसे बरफ<br />विशाल हिमनदों में<br />शिखरों की ओट में<br />जहाँ कोई नही पहुँच पाता<br />सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के<br />सूरज भी नहीं।<br /><br />सुविधाएं फुसला नही सकती<br />इन कवियों को<br />जो बहुत गहरे में नरम और खरे<br />लेकिन हैं अड़े<br />संवेदना के पक्ष में<br />गलत मौसम के बावजूद<br />छोटे-छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं में<br />करते प्रेमिका का स्मरण<br />नाचते-गाते<br />घुटन और विद्रूप से दूर<br /><br />दुरूस्त करते तमाम उपकरण<br />लेटे रहते हैं अगली सुबह तक स्लीपिंग बैग में<br />ताज़ी कविताओं के ख्वाब संजोए<br />जो अभी रची जानी हैं।<br /></span><br /><strong>1. (लाहुल की मयाड़ घाटी में एक पर्वत शिखर(ऊँचाई 6500मी0)</strong>Prakash Badalhttp://www.blogger.com/profile/04530642353450506019noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-15401746012102433772009-03-05T06:48:00.000-08:002009-03-05T06:50:18.378-08:00आस-पास एक पृथ्वी चाहिए<span style="font-size:130%;">टिमटिमा-टिमटिमा कर<br />वह पृथ्वी की नज़रों में आना चाहता था<br />ज्यादा से ज्यादा देर तक<br />उसकी नज़रों में बस जाना चाहता था<br />उसकी सोच पर हावी हो जाना चाहता था।<br /><br />वह सूरज से ‘जलता’ था<br /><br />कि क्यों सूरज की तरह<br />वह पृथ्वी के पास नहीं है?<br />जब कि देखा जाए तो<br />वह भी एक जलता हुआ सूरज ही है।<br />फिर क्यों उसका जलना<br />महज टिमटिमाना है पृथ्वी के लिए<br />जबकि सूरज का जलना, चमकना।<br /><br />और क्यों रहती है पृथ्वी<br />बुझी-बुझी<br />जब ग्रहण लग जाता है सूरज को<br />मानो मातम मनाती हो।<br /><br />उसका बस चलता<br />तो कभी पृथ्वी को यूँ हसरत से न देखता<br />पर क्या करता<br />कि स्वयं को ‘सूरज’ महसूस करने के लिए<br />उसे अपने आस पास एक पृथ्वी चाहिए ............<br /><br />पृथ्वी से बहुत दूर<br />एक सितारा<br />कुछ इस तरह टिम टिमाता रहता था।<br /></span>Prakash Badalhttp://www.blogger.com/profile/04530642353450506019noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3463735059754851128.post-3885221003258567062008-11-18T19:28:00.001-08:002008-11-18T19:35:53.518-08:00अजेय की कविता<span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;"><strong>आज जब वह जा रही है<br /></strong></span>(मां की अंतिम यात्रा से लौटने पर)<br /><strong><br /></strong></span><span style="font-size:130%;"><strong>वह जब थी<br />तो कुछ इस तरह थी<br />जैसे कोई भी बीमार बुढ़ीया होती है<br />शहर के किसी भी घर में<br />अपने दिन गिनती।<br /></strong></span><br /><strong><span style="font-size:130%;">वह जब थी<br />उस शहर और घर को<br />कोई खबर न थी<br />कि दर्द और संघर्ष की<br />अपनी दुनिया में<br />वह किस कदर अकेली थी ।<br /></span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;">आज जब वह जा रही है।</span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;">(मां की अंतिम यात्रा से लौटने पर) </span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;"></span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;"></span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;">कहां शामिल था<br />ख़ुद मैं भी<br />उस तरह से<br />उसके होने में<br />जिस तरह से इस अंतिम यात्रा में हूं ?<br /></span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;"></span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;">आज जब वह जा रही है<br />तो रोता है घर<br />स्तब्ध ह्ऐ शहर<br />खड़ा हो गया है कोई दोनो हाथ जोड़े<br />दुकान में सरक गया है कोई मुह फेर कर<br />भीड़ ने रास्ता दे दिया है उसे<br />ट्रैफिक थम गया है<br />गाड़ियां भारी भरकम अपनी गर्वीली गुर्राहट बंद कर<br />एक तरफ हो गई है दो पल के लिए<br />चौराहे पर<br />वर्दीधारी उस सिपाही ने भी<br />अदब से ठोक दिया है सलाम।<br />आज जब जा रही है मां<br />तो लगने लगा है सहसा<br />मुझे<br />इस घर को<br />और पूरे शहर को<br />कि वह थी...........और अब नहीं रही।</span></strong>Prakash Badalhttp://www.blogger.com/profile/04530642353450506019noreply@blogger.com9