Tuesday 18 November 2008

अजेय की कविता

आज जब वह जा रही है
(मां की अंतिम यात्रा से लौटने पर)

वह जब थी
तो कुछ इस तरह थी
जैसे कोई भी बीमार बुढ़ीया होती है
शहर के किसी भी घर में
अपने दिन गिनती।

वह जब थी
उस शहर और घर को
कोई खबर न थी
कि दर्द और संघर्ष की
अपनी दुनिया में
वह किस कदर अकेली थी ।

आज जब वह जा रही है।
(मां की अंतिम यात्रा से लौटने पर)


कहां शामिल था
ख़ुद मैं भी
उस तरह से
उसके होने में
जिस तरह से इस अंतिम यात्रा में हूं ?


आज जब वह जा रही है
तो रोता है घर
स्तब्ध ह्ऐ शहर
खड़ा हो गया है कोई दोनो हाथ जोड़े
दुकान में सरक गया है कोई मुह फेर कर
भीड़ ने रास्ता दे दिया है उसे
ट्रैफिक थम गया है
गाड़ियां भारी भरकम अपनी गर्वीली गुर्राहट बंद कर
एक तरफ हो गई है दो पल के लिए
चौराहे पर
वर्दीधारी उस सिपाही ने भी
अदब से ठोक दिया है सलाम।
आज जब जा रही है मां
तो लगने लगा है सहसा
मुझे
इस घर को
और पूरे शहर को
कि वह थी...........और अब नहीं रही।