Monday, 18 October 2010

जो अन्धों की स्मृति में नहीं है

हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.

भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए

ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं

प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर .....
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !

बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010

Saturday, 18 September 2010

हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका 'असिक्नी' आपकी नज़र

तकरीबन तीन साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद असिक्नी का दूसरा अंक प्रकाशित हो गया है. *असिक्नी * साहित्य एवम विचार की पत्रिका* है जो कि सुदूर हिमालय के सीमांत अहिन्दी प्रदेशों में हिन्दी भाषा तथा साहित्य को लोकप्रिय बनाने तथा इस क्षेत्र की आवाज़ को, यहाँ के सपनों और *संकटों* को शेष दुनिया तक पहुँचाने के उद्देश्य से रिंचेन ज़ङ्पो साहित्यिक -साँस्कृतिक सभा केलंग अनियतकलीन प्रकाशित करवाती है. सभा के संस्थापक अध्यक्ष श्री त्सेरिंग दोर्जे हैं तथा पत्रिका का सम्पादन कुल्लू के युवा आलोचक निरंजन देव शर्मा कर रहें हैं।



170 पृष्ठ की पत्रिका का गेट अप सुन्दर है, छपाई भी अच्छी है। मुख पृष्ठ पर तिब्बती थंका शैली में बनी बौद्ध देवी तारा की पेंटिंग है. भीतर के मुख्य आकर्षण हैं :
स्पिति के प्रथम आधुनिक हिन्दी कवि मोहन सिंह की कविता हिमाचल में समकालीन साहित्यिक परिदृष्य पर कृष्ण चन्द्र महादेविया की रपट। परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा स्नोवा बार्नो की रचनाधर्मिता को पकड़ने सार्थक प्रयास। पश्चिमी भारत की सहरिया जनजाति पर रमेश चन्द्र मीणा संस्मरण। विजेन्द्र की किताब आधी रात के रंग पर बलदेव कृष्ण घरसंगी और अजेय की महत्वपूर्ण टिप्पणियां। साथ में विजेन्द्र जी के अद्भुत सॉनेट लाहुल के पटन क्षेत्र में बौद्ध समुदाय की विवाह परम्पराओं पर सतीश लोप्पा का विवरणात्मक लेख। लाहुली समाज के विगत तीन शताब्दियों के संघर्ष का दिल्चस्प लेखा जोखा त्सेरिंग दोर्जे की कलम से। इतिहासकार तोब्दन द्वारा परिवर्तन शील पुरातन गणतंत्रात्मक जनपद मलाणा पर क्रिटिकल रपट।नूर ज़हीर, ईशिता आर 'गिरीश ',ज्ञानप्रकाश विवेक , मुरारी शर्मा की  कहानियां. मधुकर भारती,उरसेम लता, त्रिगर्ती, अनूप सेठी , आत्माराम रंजन, सुरेश सेन, मोहन साहिल, सुरेश सेन 'निशांत 'और सरोज परमार सहित गनी, नरेन्द्र, कल्पना ,बी. जोशी इत्यादि की कविताएं. प्रकाश बादल की ग़ज़लें। हाशिए की संस्कृतियों और केन्द्र की सत्ता के द्वन्द्व पर विचरोत्तेजक आलेख, पत्र, व सम्पादकीय। पत्रिका मँगवाने का पता : भारत भारती स्कूल, ढालपुर, कुल्लू, 175101 हि।प्र। दूरभाष : 9816136900

Tuesday, 17 August 2010

यह जो गाँव है....... और उस में आदमी

एक आदमी होता था


पहले एक गोरेय्या होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी इतना ऊँचा उड़ा
कि गोरेय्या खो गई!


पहले एक पहाड़ होता था
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे तन कर खड़ा
कि पहाड़ ढह गया!


पहले एक नदी होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे वेग से बहा
कि नदी सो गई!


पहले एक पेड़ होता था
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे ज़ोर से झूमा
कि पेड़ सूख गया!


पहले एक पृथ्वी होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी इतने ज़ोर से घूमा
कि पृथ्वी रो पड़ी!


.... पहले एक आदमी होता था.


मई 4, 2010. कुल्लू




एक अच्छा गाँव


एक अच्छे आदमी की तरह
एक अच्छा गाँव भी
एक बहुचर्चित गाँव नहीं होता.


अपनी गति से आगे सरकता
अपनी पाठशाला में ककहरा सीखता
अपनी ज़िन्दगी के पहाड़े गुनगुनाता
अपनी खड़िया से
अपनी सलेट पट्टी पे
अपने भविष्य की रेखाएँ उकेरता
वह एक गुमनाम क़िस्म का गाँव होता है


अपने कुँए से पानी पीता
अपनी कुदाली से
अपनी मिट्टी गोड़ता
अपनी फसल खाता
अपने जंगल के बियाबानों में पसरा
वह एक गुमसुम क़िस्म का गाँव होता है.


अपनी चटाईयों और टोकरियों पर
अपने सपनों की अल्पनाएं बुनता
अपने आँगन की दुपहरी में
अपनी खटिया पर लेटा
अपनी यादों का हुक्का गुड़गुड़ाता
चुपचाप अपने होने को जस्टिफाई करता
वह एक चुपचाप क़िस्म गाँव होता है.


एक अच्छे गाँव से मिलने
चुपचाप जाना पड़ता है
बिना किसी योजना की घोषणा किए
बिना नारा लगाए
बिना मुद्दे उछाले
बिना परचम लहराए
एक अच्छे आदमी की तरह .


केलंग , 21 मई 2010


मुझे इस गाँव को ठीक से देखना है

इस गाँव तक पहुँच गया है

एक काला, चिकना, लम्बा-चौडा राजमार्ग


जीभ लपलपाता
लार टपकाता एक लालची सरीसृप


पी गया है झरनों का सारा पानी
चाट गया है पेड़ों की तमाम पत्तियाँ


इस गाँव की आँखों में
झौंक दी गई है ढेर सारी धूल


इस गाँव की हरी भरी देह
बदरंग कर दी गई है


चैन गायब है
इस गाँव के मन में
सपनों की बयार नहीं
संशय का गर्दा उड़ रहा है


बड़े बड़े डायनोसॉर घूम रहे हैं
इस गाँव के स्वप्न में
तीतर, कोयल और हिरन नहीं
दनदना रहे हैं हेलिकॉप्टर
और भीमकाय डम्पर


इस काले चिकने लम्बे चौड़े राजमार्ग से होकर
इस गाँव में आया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौड़ा आदमी


इस गाँव के बच्चे हैरान हैं
कि इस गाँव के सभी बड़े लोग एक स्वर में
उस वाहियात आदमी को ‘बड़ा आदमी’ बतला रहे
जो उन के ‘टीपू’ खेलने की जगह पर
काला धुँआ उड़ाने वाली मशीन लगाना चाहता है !


जो उनके खिलौना पनचक्कियों
और नन्हे गुड्डे गुड्डियों को
धकियाता रौन्दता आगे निकल जाना चाहता है !


मुझे इस गाँव को
एक ‘बड़े आदमी’ की तरह डाक बंगले
या शेवेर्ले की खिड़की से नहीं देखना है


मुझे इस गाँव को
उन ‘छोटे बच्चों’ की तरह अपने
कच्चे घर के जर्जर किवाड़ों से देखना है
और महसूसना है
इन दीवारों का दरक जाना
इन पल्लों का खड़खड़ाना
इस गाँव की बुनियादों का हिल जाना !

पल-लमो, जून 7, 2010

Monday, 17 May 2010

नीचे देखते हुए चलना।

सब से ज्यादा मजा है

नीचे देखते हुए चलने में

और नीचे गिरी हुई हर सुंदर चीज को सुंदर कहने में


आज मैं माफ कर देना चाहता हूं

अब तक की तमाम बेहूदा चीजों को

जो दनदनाती हुई आई थीं मेरी जिंदगी में

और नीचे देखते हुए चलना चाहता हूं सच्चे मन से।


नीचे देखते देखते

आखिरकार उबर ही जाऊंगा उस खुशफहमी से

कि दुनिया वही है जो मेरे सामने है-

खूबसूरत औरतें, बढिय़ा शराब, चकाचक गाडिय़ां

और तमाम खुशनुमा चीजें

जिन के लिए एक हसरत बनी रहती है भीतर।


एक दिन मानने लग जाऊंगा नीचे देखते-देखते

कि एक संसार है

बेतरह रौंद दी गई मिट्टी की लीकों का

कीड़ों और घास पत्तियों के साथ

देखने लग जाऊंगा नीचे देखते-देखते

अब तक अनदेखे रह गए

मेरे अपने ही घिसे हुए चप्पल और पांयचों के दाग

एक भूखी ठांठ गाय की थूथन

एक काली लड़की की खरोंच वाली उंगलियां

मिटी में गरक हो गई कुछ काम की चीज खोजती हुई.....

बीड़ी के टोटे

चिडिय़ों और तितलियों के टूटे हुए पंख

मरे हुए चूहे धागों से बंधे हुए

रैपर, ढक्कन, टीन......

बरत कर फेंक दी गई और भी कितनी ही चीजें !


उस संसार को देखना

एक गुमशुदा अतीत की ख्वाहिशों में झांकने जैसा होगा

और इससे पहले कि धूल में आधी दबी उस अठन्नी को

लपक कर मु_ी में बंद कर लूं

वैसी बीसियों चमकने लग जाएंगी यहां-वहां

दूर धुंधलके से तैरकर आता अद्भुत स्वप्न जैसा

बरबस सच हो जाना चाहता हुआ।


ठीक ऐसा ही कोई दिन होगा

नीचे देखते-देखते

जब गुपचुप प्रवेश कर जाऊंगा उन यादों में

जब मैं भी वहां नीचे था कहीं

बहुत नीचे, और बेहद छोटा, बच्चा सा

यहां ऊपर पहुंचने के लिए बड़ा छटपटाता....

और समझने लग जाऊंगा कि अच्छा किया

जो तय कर लिया वक्त रहते

नीचे देखते हुए चलना।

Monday, 26 April 2010

कुछ बातें काम की

अजेय भाई की क्षणिकाएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। अजेय भाई, आप इतने नाराज़ हो जाओगे सोचा न था!!!!!!!!!!!!!!!
खैर आपकी याद में आपकी ही कुछ कविताएँ:-







चार क्षणिकाएँ



एक


सुनो,
आज ईश्वर काम पर है

तुम भी लग जाओ
आज प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी।

दो

उसके दो हाथों में
चार काम दे दिए
और कहा
बदतमीज़,
लातों से दरवाज़ा खोलता है!

तीन

आँखें आशंकित थीं
हाथों ने कर दिखाया।

चार

काम की जगह पर
सब कूड़ा बिखरा था
बस काम चमक रहा था
आग सा।